Rasool Allah Ki Nasihat

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रसूल अल्लाह सल्लाहु अलैहि वसल्लम की क़ीमती नसीहतें

जब तक इंसान अपनी जिंदगी में किसी को अपना रहनुमा नहीं बनता वो दुनिया और आख़िरत किसी में भी तरक्की नहीं कर सकता।

अल्लाह का शुक्र है की हम मुसलमान घर में पैदा हुए लेकिन इतना काफी नहीं है। कामयाबी के लिए इसके लिए हमें Rasool Allah Ki Nasihat अपनी जिंदगी की रहनुमाई के लिए बहुत ही जरुरी है। ये ऐसी नसीहत है जो दुनिया और आख़िरत दोनों की कामयाबी का बाइस है।

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अल्लाह ताला का लाख लाख शुक्र है कि इस ज़ात ने हमें इन्सान बनाने के बाद ईमान जैसी नेअमत अता फ़रमाई। अहले ईमान की पहचान यही है कि वह अल्लाह और उसके रसूल सल्लाहु अलैहि वसल्लम को मान कर उनके अहकामात को मानते और अमल करते हैं।

अल्लाह के रसूल सल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हर मौके पर ऐसी बातें सिखलाई हैं जिन पर अमल करना दोनों जहानों की कामयाबीयों का बाइस है। इसी सिलसिले की एक कड़ी नीचे दी गई हदीस मुबारक है जिसमें आप सल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कामयाब होने की पाँच क़ीमती नसीहतें इरशाद फ़रमाई हैं

हज़रत अबूहुरैरा रज़ी अल्लाह अन्हा से मर्वी है कि रसूल अल्लाह सल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कौन है जो मुझसे चंद नसीहतें सीखे ताकि ख़ुद उन पर अमल करे और दूसरों तक भी पहुंचाए और वो भी उन पर अमल कर सकें।

हज़रत अबूहुरैरा रज़ी अल्लाह तआला अन्हु फ़रमाते हैं कि मैंने अर्ज़ किया अल्लाह के रसूल सल्लाहु अलैहि वसल्लम मै इस काम के लिए तैयार हूँ। हज़रत अबूहुरैरा रज़ी अल्लाह तआला अन्हु फ़रमाते हैं अल्लाह के रसूल सल्लाहु अलैहि वसल्लम वसल्लम ने मेरा हाथ पकड़ा और ये पाँच नसीहतें शुमार कराईं


1: शरीयत की हराम करदा चीज़ों से ख़ुद को बचाओ तो सबसे ज़्यादा इबादतगुज़ार बंदे बन जाओगे।


2: अल्लाह की तक़सीम पर दिलोजान से राज़ी हो जाओ तो सबसे ज़्यादा ग़िना हासिल हो जाएगा यानी अल्लाह तुम्हें (लोगों के माल-ओ-मन्सब से) बेनियाज़ की दौलत नसीब फ़रमाएँगे।


3: अपने हमसायों के साथ अच्छे बरताव का मामला करो तो (कामिल सिफ़ात वाले अच्छे और सच्चे) मोमिन बन जाओगे।


4: सही माएनों में मुस्लमान तभी कहलाओगे जब दूसरे मुस्लमान के लिए वही चीज़ पसंद करो जो अपने लिए करते हो।


5: ज़्यादा (फ़ुज़ूल बातों पर) खिल खिला कर हँसने से बचोगे क्योंकि बेफ़िकरी की वजह से ज़्यादा हँसना दिल को मुर्दा कर देता है। (तिरमिज़ी शरीफ़, 2305)

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मुमानियत से बचना


शरीयत इस्लामीया में जिन कामों से रोका गया है उन्हें मुमानियत’ और जिन कामों के करने का हुक्म दिया गया है उन्हें ”मामू रात’ कहा जाता है।

मुमानियत को करना और मामूरात को छोड़ना हराम है। हदीस मुबारक में इसी हराम से बचने वाले को सबसे बड़ा इबादत गुज़ार क़रार दिया गया है। इसलिए अक़ाइद इस्लामीया को अपनाने के बाद फ़राइज़ व वाजबात को अदा करना सबसे बड़ी इबादत है।

और ये उस वक़्त तक कामिल इबादत नहीं बन सकती जब तक गुनाहों को छोड़ ना दिया जावो और जो गुनाह हो चुके हैं उनसे सच्चे दिल से तौबा ना कर ली जाये।

गुनाहों से बचने वाले को सबसे बड़ा इबादत गुज़ार इसलिए क़रार दिया गया है कि बाअज़ गुनाहों का इर्तिकाब नेकियों के अज्र व स्वाब को ख़त्म कर देता है। इसलिए बड़ा इबादतगुज़ार वही होगा जिसकी इबादात महफ़ूज़ रहें और इबादात उसी की महफ़ूज़ रहेंगी जो गुनाहों से ख़ुद को बचाएगा।

हमारे माशरे में एक बुनियादी ग़लती ये होती है कि वो फ़राइज़-ओ-वाजिबात को अदा नहीं करते और नफ़ली इबादात में मशग़ूल रहते हैं।

ये ऐसे ही है कि जो शख़्स फ़र्ज़ नमाज़ को छोड़कर नवाफ़िल में मशग़ूल हो जाये, ज़कात, उश्र, सदक़ा, फितरा और क़ुर्बानी को छोड़कर रफ़ाही कामों में अपने पैसे को ख़र्च करे, फ़र्ज़ रोज़ों को छोड़कर नफ़ली रोज़ों का एहतिमाम करे, फ़र्ज़ हज को छोड़कर नफ़ली उमरे अदा करता रहे।

नफ़ली इबादात का सवाब अपनी जगह लेकिन फ़राइज़-ओ-वाजिबात को छोड़ने का गुनाह अपनी जगह

चंद हराम काम


कुफ़्र, शिर्क, इस्लाम क़बूल करने के बाद इस्लाम को छोड़ देना यानी मुर्तद, लेन देन में कमी या बेशी करना, क़ुरआन-ओ-हदीस की ग़लत और मन-मानी तशरीह करना, झूट, नाहक़ तोहमत, सूद, रिश्वत, हसद, ग़ीबत,

चुगु़लख़ोरी, किसी का नाहक़ माल खाना, फ़ह्हाशी-ओ-उर्यानी को आम करना, तकब्बुर, ग़रूर, रयाकारी, फ़ख़र-ओ-मुबाहात, वालदैन की ना-फ़रमानी, झूटी गवाही, जिना, बदनज़री, ज़ुलम, गालियां देना, किसी पर तशद्दुद करना, मुर्दों को

गाली देना, एहसान जतलाना, बद-गुमानी, बदज़बानी बिलख़सूस इस्लाम की मारूफ शख़्सियात को बुरा-भला कहना, क़ता रहमी करना, बोल-चाल छोड़ना, बिलावजह जासूसी करना, धोका बाज़ी, ख़ियानत, चोरी, डकैती, ग़ैर महरम मर्द या औरत से

बिलावजह गुफ़्तगु करना, मर्द-ओ-ख़वातीन का एक दूसरे की मुशाबहत इख़तियार करना, औरत का अपने शौहर की नाफ़रमान और नाशुक्री होना, मर्द का अपनी बीवी के माली, जिस्मानी, मआशी और मुआशरती हुक़ूक़ अदा ना करना, इसराफ़ यानी

फुज़ूलखर्ची, शादी ब्याह और तर्ज़ मुआशरत में ग़ैर इस्लामी रवायात अपनाना, फ़राइज़-ओ-वाजिबात को छोड़ना बिलख़सूस नमाज़, ज़कात,रोज़ा, हज, काहिन जिसे आज की ज़बान में नजूमी कहा जाता है के पास अपनी क़िस्मत जानने या

संवारने के लिए जाना, जादू, अल्लाह के इलावा किसी और की क़सम खाना, झूटी बात पर क़सम खाना, मिलावट करना, नाप तौल में कमी करना, बदअहदी करना, मय्यत पर नोहा करना, गिरेबान चाक करना।

रुख़्सार पीटना, क़ब्रों की पामाली करना, बाएं हाथ से खाना पीना, बिलावजह खड़े हो कर खाना पीना, मुस्लमान पर असलाह उठाना, ग़ैर मुस्लिमों को बिलावजह क़तल करना, शराब पीना, चरस पीना, अफ़ीम पीना, भंग पीना,किसी को नशा पिलाना, गाना, इश्क़िया ग़ज़लें, मौसीक़ी, फिल्में, ड्रामे देखना और सुनना, मर्द का सोना इस्तिमाल करना, ख़वातीन का बेपर्दा होना वग़ैरा

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अल्लाह की तक़सीम पर राज़ी रहना


अल्लाह रब्बुल अल्लामिन ने जितना रिज़्क़ मुक़द्दर में लिख दिया है वो ज़रूर मिलकर रहेगा। इस के लिए जायज़ अस्बाब को इख़तियार करने का हुक्म शरीयत ख़ुद देती है।

जो मिल जाये इस पर शुक्र अदा किया जाये क्योंकि जो चीज़ मिली है वो महिज़ अल्लाह के फ़ज़ल से मिली है और अस्बाब की तौफ़ीक़ का मिल जाना भी अल्लाह का फ़ज़ल है।

मोमिन की पहचान ये है कि नेअमतों का सुक्र बजा लाता है और तकालीफ़-ओ-आज़माईशों पर सब्र से काम लेता है। वो किसी दूसरे से हसद नहीं रखता, लालच, हिर्स-ओ-हवस से ख़ुद को बचाता है।

हर हाल में अल्लाह से राज़ी रहता है। कोई नेअमत मिल जाये तो शुक्र और कोई मुसीबत आजाए तो सब्र करता है

बंदा शाकिर-ओ-साबिर कब बनता है


हज़रत ऊमरो बिन शुऐब अपने दादा अब्दुहल्लाह बिन अमरो रज़ी अल्लाह से रिवायत करते हैं कि उन्होंने रसूल अल्लाह सल्लाहु अलैहि वसल्लम को ये फ़रमाते हुए सुना कि दो ख़सलतें ऐसी हैं।

पहली खूबी जिसमें वो पैदा हो जाएं अल्लाह करीम उस को साबिर-ओ-शाकिर लिख देता है पहली ख़ूबी दीन-दारी के मुआमले में अपने से ज्यादा दीनदार इन्सान की तरफ़ देखे और फिर उस की इक़तदा में लग जाये ख़ुद भी नेकी इख़तियार करे और इस जैसी नेकियों को अंजाम देने की भरपूर कोशिश करे।

दूसरी ख़ूबी इस में ये हो कि दुनियावी उमूर में अपने से कमतर इन्सान को देखे फिर अल्लाह की तरफ़ से मिलने वाली ज़्यादा नेअमत को देखे इस पर अल्लाह का शुक्र अदा करे तो ऐसे शख़्स को अल्लाह पाक साबिर व शाकिर लिख देंगे। (तिर्मीजी शरीफ़ 2512)

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हमसाइयों के हुक़ूक़ की पासदारी


अदयान आलम में इस्लाम वो वाहिद देन है जिसमें पड़ोसीयों के हुक़ूक़ को अदा करने की सबसे ज़्यादा तरग़ीब दी गई है। और उसे कामिल ईमान वाले मोमिन की सिफ़त क़रार दिया गया है।

उम1उल मोमनीन सय्यदा आईशा सिद्दीक़ा रज़ी अल्लाह तआला अनहा से मर्वी है कि नबी करीम सल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया पड़ोसीयों के (हुक़ूक़ के बारे में मेरे पास जिब्रील अमीन इतनी बार तशरीफ़ लाए कि मुझे ये गुमान होने लगा कि एक पड़ोसी को दूसरे पड़ोसी की मीरास में वारिस (हक़दार) क़रार दिया जाएगा। (सही अल बुख़ारी, अलहदीस 6014)

पड़ोसीयों के बुनियादी हुक़ूक़

हज़रत अमरो बिन शुऐब रज़ी अल्लाह तआला अन्हा वालिद के वास्ते से अपने दादा से रिवायत करते हैं कि रसूल अल्लाह सल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया क्या तुम्हें पड़ोसीयों के हुक़ूक़ का पता है?

फिर ख़ुद ही इरशाद फ़रमाया जब वो आपसे जानी या माली मदद मांगें तो अपनी इस्तिताअत और इस की ज़रूरत दोनों को मलहूज़ रखकर उनकी मदद करें।

अगर ज़रूरत के पेश-ए-नज़र वो क़र्ज़ मांगें तो उन्हें क़र्ज़ दिया जाये। जब फ़ुक़्र और मोहताजी की हालत को पहुंच जाये फिर वो मदद ना भी मांगे और क़र्ज़ ना भी मांगे तब भी अपनी हैसियत के पेश-ए-नज़र उस के फ़ुक़्र-ओ-तंगदस्ती को दूर करने की कोशिश की जाये।

अगर वो बीमार हो जाये तो इस की इयादत और बीमारपुर्सी की जाये। जब उनके हाँ कोई ख़ुशी का मौक़ा आए तो उनको मुबारकबाद देना। जब उनके हाँ कोई ग़मी का मौक़ा आए तो उनके साथ इज़हार-ए-हमदर्दी करना।

जब उनके हाँ फ़ौतगी हो जाये तो उस के जनाज़े में शिरकत की जाये। अपने घर की दीवार उस की इजाज़त के बग़ैर इतनी ऊंची ना की जाये कि इस के घर की हवा रुक जाये।

घर में खाना तैयार करते वक़्त पड़ोसी को तकलीफ़ ना दी जाये। अपने लिए फल वग़ैरा खरीदें तो उनमें से कुछ पड़ोसीयों को भी तोहफे के तौर पर भेज दें।

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मुस्लमान भाईयों का ख़्याल


हदीस मुबारक में सही माअनों में मुस्लमान होने के लिए इस चीज़ को ज़रूरी क़रार दिया जा रहा है कि बंदा जो चीज़ अपने लिए पसंद करता है उसे चाहीए कि अपने दूसरे मुस्लमान भाई के लिए भी वही चीज़ पसंद करे।

चुनांचे इसी मज़मून की एक दूसरी हदीस है। हज़रत अनस रज़ी अल्लाह तआला अन्हु से मर्वी है कि नबी करीम सल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया तुम में से कोई शख़्स उस वक़्त तक (कामिल) मोमिन नहीं हो सकता जब तक अपने मुस्लमान भाई के लिए वही चीज़ पसंद ना करे जो अपने लिए पसंद करता है। (सही अलबुख़ारी)

इस्लाम की तालीमात का मुक़ाबला दुनिया का कोई दीन नहीं कर सकता। बात को इतने ख़ूबसूरत पैराए में बयान कर दिया है कि हर इन्सान को बा आसानी समझ में आजाए।

जो तुम्हें पसंद है अपने भाई के लिए वही पसंद करो। बंदे की तमाम पसंदीदा चीज़ों का ख़ुलासा दो चीज़ें हैं:इज़्ज़त और राहत।बाअज़ ऐसे अस्बाब हैं जो इन्सान मुआशरे में इज़्ज़त के हुसूल के लिए इख़तियार करता है और बाअज़ ऐसे अस्बाब हैं।

जो इन्सान राहत के हुसूल के लिए इख़तियार करता है। हदीस मुबारक में जुज़ई को अलग अलग ज़िक्र करने के बजाय एक कली को ज़िक्र कर दिया गया है और मुआमला बंदे के सपुर्द कर दिया गया है।

कि बस अपनी ज़िंदगी के हर मोड़ पर देखते जाओ कि जो तुम्हें पसंद है वो अपने भाई के लिए भी पसंद करो। अगर आज का मुआशरा इस उसूल पर आजाए फ़साद की जड़ें ही उखड़ जाएं

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ज़्यादा हँसने से दिल मुर्दा हो जाता हैं


हदीस मुबारक में बेफ़िकरी और ग़फ़लत की वजह से खिला- खिला कर हँसने से मना किया गया है और उसे मुर्दा दिली की अलामत क़रार दिया गया है। ख़ुश होने की बात पर ख़ुश होना अलग बात है लेकिन आख़िरत से ग़ाफ़िल हो कर, अंजाम से बेफ़िकर हो कर क़ह-क़हे लगा कर ज़ोर-ज़ोर से हँसना अलग बात है।

अल्लाह के रसूल सल्लाहु अलैहि वसल्लम के शमाइल वावसाफ़ में हँसने का तज़किरा इन अलफ़ाज़ में मिलता है। उमउल मोमनीन सय्यदा आईशा सिद्दीक़ा रज़ी अल्लाह तआला अनहा से मर्वी है कि मैंने नबी करीम सल्लाहु अलैहि वसल्लम को कभी इतने ज़ोर से (क़ह-क़हा लगा कर) हंसते हुए नहीं देखा कि आप सल्लाहु अलैहि वसल्लम का हलक़ मुबारक नज़र आए। (सही अलबुख़ारी)

एक हदीस मुबारक में मुर्दा दिली के साथ-साथ इस बात का इज़ाफ़ा भी मिलता है ज़्यादा क़ह-क़हे लगाने से चेहरे का नूर छिन जाता है।

इन्सान की बात बे-वज़्न हो जाती है, लोगों के दिलों में इज़्ज़त ख़त्म या कम अज़ कम-कम हो जाती है, संजीदगी और मितानत से हाथ धो बैठता है।

बा वक़ार शख़्सियत का नक़्श मिट जाता है जिसका लाज़िमी नतीजा ये निकलता है कि इन्सान की मुआशरे में हैसियत कम हो जाती है।

हाँ ये ठीक है कि हँसने के मौक़ा पर हँसना चाहिए लेकिन इस का ये मतलब भी हरगिज़ नहीं कि रातों को तन्हाइयों में बंदा अल्लाह के हुज़ूर रोना भूल जाये। अल्लाहताला हमें अमल करने की तौफ़ीक़ नसीब फ़रमाए। आमीन

(हदीस Source : Sunnah.com)

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