बैंक में एक साहिब बड़े ग़ुस्सा में थे कि उनकी इजाज़त के बग़ैर बैंक वालों ने ज़कात मिनहा कर ली मेरे पैसे हैं। ज़कात भी में अपनी मर्ज़ी से देना चाहता हूँ। बैंक वाले ना जाने किस को ज़कात दें या ना दें मुझे क्या ख़बर । एक हद तक उनका कहना दरुस्त है किसी एकाऊंट होल्डर के पैसे से कोई दूसरा ज़कात काटने का मजाज़ नहीं होना चाहिए माह -ए-सय्याम में एक तरफ़ लाखों साहब-ए-निसाब अपना माल पाक करने के लिए ज़कात देते हैं।
वहां करोड़ों रुपय बैंकों से इसलिए निकाल लिए जाते हैं ज़कात ना देनी पड़े कुछ लोग मसलक ही तबदील कर लेते हैं वो फ़ार्म भरकर जमा करवा देते हैं कि हम शीया मसलक से ताल्लुक़ रखते हैं कुछ हसब-ए-मंशा अपने ग़रीब रिश्तेदारों दोस्तों या मुहल्ले वालों, किसी फ़लाही इदारे।हॉसिपिटल या NGO की ज़कात के ज़रीये मदद करना चाहते हैं।
लेकिन बैंक क़वानीन उनकी राह में रुकावट हैं इसलिए वो रक़म काट लेते हैं वैसे भी आम लोग ज़कात के बारे में ज़्यादा नहीं जानते या जानना नहीं चाहते अल्हम्दुलिल्लाह हम मुस्लमान हैं इसलिए ज़कात के मुताल्लिक़ इंतिहाई अहम मालूमात आवर हर तबक़े मसलन आम लोगों, ताजिर, ज़मींदार और जानवर पालने वालों के लिए आम करने की ज़रूरत है। एक सादा सी मिसाल ही काफ़ी हो सकती है जिसमें अक़ल वालों के लिए ज़बरदस्त निशानीयां हैं।
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ज़कात क्या है
इस्लाम की पांच बुनियादी बातें तौहीद, नमाज़, रोज़ा, ज़कात और हज है। तो जाहिर है कि जकात इस्लाम की 5 बुनियादी चीजों में से एक है। यानी अपने माल (पैसा, सोना, चांदी, माल तेजारत यानि बेचने की नियत से ख़रीदे जाने वाला मॉल ) को पाक करने कि गरज से जो चीज आप निकालते हैं उसे इस्लाम में ज़कात कहते है।
उदहारण से समझते हैं ज़कात को
हम पाँच किलो का एक ”तरबूज़’ ख़रीदते हैं खाने से पहले हम उस का मोटा छिलका उतारते हैं। पाँच किलो में से कम-अज़-कम एक किलो छिलका निकल ही जाता है। यानी तक़रीबन बीस फ़ीसद सच्च – सच्च बताएं उतना छिलका की उतार कर किया हमें अफ़सोस होता है? क्या हम परेशान होते हैं?
क्या हम सोचते हैं कि हैं तरबूज़ को छिलके के साथ खा लें? क़ीमत तो हमने उस की पूरी पूरी चुकाई होती है। नहीं बिलकुल नहीं यही हाल केले, माल्टे का भी है। हम ख़ुशी – ख़ुशी से छिलका उतार कर खाते हैं मगर छिलका फेंकते वक़्त तकलीफ़ नहीं होती।
एक और मिसाल पर ग़ौर करें हम मुर्ग़ी ख़रीदते हैं। मगर जब खाना तैयार करने लगते हैं तो उस के बाल, खाल और पेट की आलाईशें निकाल बाहर फेंक देते हैं। क्या इस पर दुख: या मलाल होता है? यक़ीनन आप कहेंगे। नहीं तो।
फिर चालीस हज़ार में से एक हज़ार देने पर, एक लाख में से अढ़ाई हज़ार देने पर क्यों हमें बहुत तकलीफ़ होती है? हालाँकि ये सिर्फ़ अढ़ाई फ़ीसद बनता है यानी सौ रुपय में से सिर्फ अढ़ाई रूपया। ये सोचने समझने के लिए काफ़ी नहीं कि ये तरबूज़, केले, ख़रबूज़ा, खीरा, आम के छिलके और गुठली और माल्टे के छिलके से भी कम है।
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ज़कात से माल पाक हो जाता है
इस कटौती को अल्लाह तबारक ताला ने उसे ”ज़कात’ का नाम दिया है। ये भी फ़रमाया कि ज़कात से माल पाक हो जाता है। इस का मतलब ये हुआ कि माल भी पाक ईमान भी पाक दिल और जिस्म भी पाक और इस से रुहानी और कलबी सुकून ही सुकून।
मुस्तहक़्क़ीन की मदद भी मुआशरा में ख़ुशहाली भी, इतनी मामूली रक़म यानी चालीस रुपये में से सिर्फ एक रुपया और इस के फ़ायदे कितने ज़्यादा, अज्र कितना ज़्यादा, बरकत ही बरकत सुकून ही सुकून सवाब का सवाब मदद की मदद आप भी जानते होंगे कि1 लाख पर 2500 रुपये ज़कात वाजिब है।
इसी तरह 2 लाख पर 5000 रुपय के हिसाब से जितनी रक़म हवास पर ज़कात की शरह निकाली जा सकती है। ज़कात के लुगवी मअनी पाकी और बढ़ोतरी के हैं ये दीन इस्लाम का एक बुनियादी रुकन है ज़कू इनकार करने वाला काफ़िर है। (हम अलसजदा आयत नंबर6-7)
मुनकरीन-ए-ज़कात के ख़िलाफ़ ख़लीफ़ा -ए-अव्वल हज़रत अबूबकर सिद्दीक़ रजीयल्लाहू अन्हू ने जंग की थी इस से ज़कात की एहमीयत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
ज़कात न अदा करने से सख़्त अज़ाब
- ज़कात ना करने वाले को क़ियामत के दिन सख़्त अज़ाब दिया जाएगा। (अलतूबा34-35)
2. ज़कात अदा ना करने वाली क़ौम कहतसाली का शिकार हो जाती है। (तबरानी)
3. ज़कात का मुनकिर यानी जो ज़कात अदा नहीं करता उसकी नमाज़, रोज़ा, हज सब बेकार और हर किस्म की इबादात अबस हैं।
4. ज़कात वाले क़ियामत के दिन हर किस्म के ग़म और ख़ौफ़ से महफ़ूज़ होंगे। (अलबक़रा277)
5. ज़कात की अदायगी गुनाहों का कफ़्फ़ारा और दर्जात की बुलंदी का बहुत बड़ा ज़रीया है। (अलतूबा103)
ये भी ज़हनों में सवाल गर्दिश करता होगा कि सोना चांदी, ज़मीन की पैदावार, माल तिजारत, जानवर, प्लाट, किराया पर दीए गए मकान, या दुकानें, गाड़ीयों और दुकान वग़ैरा की ज़कात अदा की जा सकती है।
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ज़कात किस पर फ़र्ज़ है
हर माल दार मुस्लमान मर्द / औरत पर ज़कात वाजिब है। ख़ाह वो बालिग़ हो या नाबालिग़ , आक़िल होया ग़ैर आक़िल बशर्त ये कि वो साहिब निसाब हो।
सूद, रिश्वत, चोरी डकैती, और दीगर हराम ज़राए से कमाया हुआ माल उनसे ज़कू का बिलकुल फ़ायदा नहीं होगा क्योंकि सिर्फ हलाल कमाई से दी गई ज़कात काबिल-ए-क़बूल है।
ज़कात किन चीज़ों पर फ़र्ज़ है
- सोना चांदी
2. ज़मीन की पैदावार / प्रॉपर्टी से हासिल होने वाली आमदन
3. माल तिजारत
4-. सोने की 87 ग्राम यानी साढे़ सात तोले सोना पर ज़कात वाजिब है (इबन माजा1/1448) सोना महफ़ूज़ जगह हो किसी बैंक के लॉकर में ही क्यों ना हो या घरवालों के इस्तिमाल में हो हर एक सूरत में ज़कात वाजिब होगी। ( सुनन अबू दाऊद अव्वल सफ़ा 390) फ़तह अलबारी जुज़ चार सफ़ा13)
5. 612 ग्राम यानी साढ़े 52 तोले चांदी पर वाजिब है इस से कम वज़न पर नहीं। (इबन माजा)। ज़कात की शरह बलिहाज़ क़ीमत या बलिहाज़ वज़न अढ़ाई फ़ीसद है। (सही बुख़ारी किताब ज़कात)
6. मस्नूई ज़राए से सेराब होने वाली ज़मीन की पैदा-वार अगर पाँच वसक से ज़्यादा है यानी 725 किलोग्राम तक़रीबन18 मन ) है तो ज़कात यानी उश्र बीसवां हिस्सा देना होगा वर्ना नहीं। जबकि क़ुदरती ज़राए से सेराब होने वाली पैदावार पर शरह ज़कात दसवाँ हिस्सा है। देखिए
7. सही बुख़ारी किताब अलज़कू ज़रई ज़मीन वाले अफ़राद को गंदुम, मक्की, चावल, बाजरा, आलू, सूरज-मुखी, कपास, गन्ना और दीगर किस्म की पैदावार से ज़कू (उश्र )बीसवां हिस्सा हर पैदावार से निकालना होगा।
8. सही बुख़ारी किताब अलज़कू पाँच ऊंटों की ज़कात एक बिक्री और दस ऊंटों की ज़कात 2बकरीयां हैं। पाँच से कम ऊंटों पर ज़कातवा जब नहीं। (सही बुख़ारी किताब अलज़कू 30 गाइयों पर एक बकरी ज़कात वाजिब है। जबकि 40 गाइयों पर दो साल से बड़ा बिछड़ा ज़कू का हुक्म है।
9. तिरमिज़ी1/509) कम-अज़-कम 40 से एक सौ बीस भीड़ बकरीयों पर एक बकरी ज़कात है। 120 से लेकर200 तक दो बकरीयां ज़कात देना वाजिब है। (सही बुख़ारी किताब अलज़कू चालीस बकरीयों से कम पर ज़कात का हुक्म नहीं है ।
10. किराया पर दिए गए मकान पर ज़कात नहीं लेकिन अगर उसका किराया साल भर जमा होता रहे जो निसाब तक पहुंच जाये और इस पर साल भी गुज़र जाये तो फ़रास किराए पर ज़कात वाजिब है। अगर किराया साल पूरा होने से पहले ख़र्च हो जाये तो फिर ज़कात लागू नहीं होगी रक़म पर शरह ज़कात अढ़ाई फ़ीसद ही होगी।
11. इसी तरह ज़ेर-ए-इस्तेमाल गाड़ी पर ज़कात नहीं है लेकिन किराया पर चलने वाली गाड़ीयों पर इस शर्त के साथ कि किराया साल भर जमा होता रहे और निसाब तक पहुंच जाये ज़कात देना होगी घरेलू इस्तिमाल वाली गाड़ीयों, जानवरों, हिफ़ाज़ती हथियार।मकान वग़ैरा पर ज़कात नहीं।
12. सही बुख़ारी जबकि हर किस्म के कारोबार या दुकान जिसमें सामान तिजारत हो इस पर ज़कात देना वाजिब है। इस शर्त के साथ कि वो माल निसाब को पहुंच जाये और इस पर एक साल गुज़र जाये। तमाम माल का हिसाब कर के उसका चालीसवां हिस्सा ज़कात दें।
13. उस का मतलब ये हुआ कि दुकान की इस आमदनी पर ज़कात नहीं जो साथ साथ ख़र्च होती रहे सिर्फ इस आमदनी पर ज़कात होगी जो माल ख़र्च न हो या घर में पूरा साल पड़ी रहे और वो पैसे इतने हो के उन पर साढे़ बावन तोले चांदी ख़रीदी जा सके।
14. इस के इलावा जो प्लाट मुनाफ़ा हासिल करने के लिए ख़रीदा गया हो इस पर ज़कात वाजिब हो ज़ाती हैं। इस्तिमाल के लिए ख़रीदे गए प्लाट पर ज़कात नहीं दी जाएगी (सुंन अबी दाऊद किताब अलज़कू हदीस नंबर1562)
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ज़कात किसको दी जाये
अब सवाल ये पैदा होता है कि ज़कात किस-किस को दी जा सकती है। वैसे तो हर ग़रीब ज़कात का हक़दार है आसान अलफ़ाज़ में ज़हनशीन कर लिया जाये कि वालिदैन और औलाद के इलावा किसी भी मुस्तहिक़, कम वसाइल मुस्लमान को ज़कात दी जा सकती है।
वालिदैन और औलाद पर असल माल ख़र्च करने का हुक्म है वालिदैन में दादा दादी , नाना नानी और औलाद में पोते पोतीया, नवासीयाँ नवासे भी शामिल हैं।
लेकिन मसाकीन (हाजतमंद), ग़रीब, मक़रूज़, ग़ैरमुस्लिम जो इस्लाम के लिए नरम गोशा रखता हो ,क़ैदी, मुजाहिदीन, मुसाफ़िर (सूर60)، मिसाल के तौर पर अगर कुछ सोना है, कुछ चांदी है, या, कुछ नक़द रुपया है, या, कुछ माल-ए-तिजारत है, उनको मिलाकर देखा जाये तो साढे़ बावन तोले चांदी की मालियत बनती है। इस सूरत में भी ज़कात फ़र्ज़ है।
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ज़कात के कुछ मसाइल
एक साहिब निसाब शख़्स को दरमयान साल में 53 हज़ार की आमदनी हुई, तो ये 53 हज़ार भी अम्वाल-ए-ज़कात में शामिल किए जाऐंगे या नहीं? एक सनअत कार के पास दो किस्म का माल होता है, एक ख़ाम माल, जो चीज़ों की तैयारी में काम आता है, और तैयार शूदा माल, इन दोनों किस्म के माल पर ज़कात फ़र्ज़ है।
जबकि मशीनरी और दीगर वो चीज़ें जिनके ज़रीया माल तैयार किया जाता है, उन पर ज़कात फ़र्ज़ नहीं? मुस्लमानों को इस बात पर ग़ौर करना होगा कि हज के लिए रखी हुई रक़म पर ज़कात ज़कात वाजिब है।
एक सवाल ये भी है कि किसी को हम ज़कात दें और उसको बताएं नहीं तो इस सूरत में भी ज़कात अदा हो जाये गी लेकिन इन्कम टैक्स अदा करने से ज़कात अदा नहीं होती। ये बात ख़ास तौर पर बिल -ए-ज़िक्र है कि ग़रीब भाई, बहन, चचा, भतीजे, मामूं, भांजे को ज़कात देना जायज़ है।
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इन पाँच बुज़ुर्गों की नसल से हो तो इन को ज़कात नहीं दी जा सकती
जबकि आँहज़रत सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के ख़ानदान यानी ऑल-ए-अलेऊ, ऑल-ए-अक़ील, ऑल-ए-जाफ़र, ऑल-ए-अबासओ और ऑल-ए-हारिस बिन अबदुलमुतलिब, इन पाँच बुज़ुर्गों की नसल से हो तो इस को ज़कात नहीं दी जा सकती शरई तौर पर मालदार बीवी का ग़रीब शौहर बीवी के इलावा दूसरों से ज़कात ले सकता है आज के दौर में जिस शख़्स की तनख़्वाह 40000 से कम है या उस के बराबर आमदन है उसे आँखें बंद कर के ज़कात देना चाहिए।