रोज़े का मक़सद
जब तक किसी इबादत के बारे में सही से नहीं जानेगे तो तब तक इबादत का जौक और शौक पैदा नहीं हो पायेगा। इसलिए हमें Roze ka Maksad क्या है। इसे अच्छी तरह से समझ लेना बेहतर होगा।
सरवर-ए-कायनात महबूब-ए-ख़ुदाﷺने रमज़ान उल-मुबारक को नेकियों का मौसम-ए-बहार क़रार दिया है।
जिसका मतलब है जिस तरह बहार की आमद पर चारों तरफ़ रंग-ओ-नूर ताज़ा फूलों की बरसात होती है।
बोसीदा पत्तों की जगह तर-ओ-ताज़ा पत्ते उगते हैं नए शगूफ़े फूटते हैं हर तरफ़ एक आसूदगी खुशनूमाई तरो ताज़गी रंगीनी और रूह के अंदर तक का ख़ूब एहसास होता है।
ईसी तरह जब तमाम महीनों का सरदार महीना जिसमें अल्लाह ﷲ तआला ने क़ुरआन हकीम नाज़िल फ़रमाया रमज़ान उल-मुबारक की एक बा बरकत शब आसमान दुनिया पर क़ुरआन-ए-मजीद का नुज़ूल हुआ लिहाज़ा उस रात को ख़ालिक़ अर्ज़-ओ-समा ने तमाम रातों पर फ़ज़ीलत अता फ़रमाई और उसे शब-ए-क़द्र क़रार देते हुए इरशाद फ़रमाया ।
तर्जुमा शब-ए-क़दर (फ़ज़ीलत-ओ-बरकत और अज्र-ओ-सवाब में हज़ार महीनों से बेहतर है ।
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रोज़े की हदीस
रमज़ान उल-मुबारक की फ़ज़ीलत-ओ-अज़मत और बरकात के बारे में साक़ी-ए-कौसर ﷺ फ़रमाते हैं।
हज़रत अब्बू हुरैरा से मर्वी है कि जब रमज़ान आता है तो जन्नत के दरवाज़े खोल दिए जाते हैं और दोज़ख़ के दरवाज़े बंद कर दिए जाते हैं और शैतानों को ज़ंजीरों से बांध दिया जाता है ।
एक और हदीस में हज़रत अब्बू हुरैरा फ़रमाते हैं कि नबी ﷺ फ़रमाते हैं जो शख़्स बाहालत ईमान सवाब की नीयत से रमज़ान के रोज़े रखता है तो इस के साबिक़ा तमाम गुनाह बख़श दीए जाते हैं।
रमज़ान उल-मुबारक वाक़ई नेकियों की बहार का मौसम है जिसका हर एक लम्हा इस क़दर बा बरकत और बा सआदत है कि बाक़ी ग्यारह महीने मिलकर भी इस की बराबरी-हमसरी नहीं कर सकते ।
रमजानुल मुबारक की आमद के साथ ही हर तरफ़ बरकत-ओ-सआदत ख़ैरात सख़ावत ईसार और ईमान अफ़रोज़ मनाज़िर दिखाई देने लगते हैं ।
रमज़ान में खर्च
सदक़ा ख़ैरात का और इबादात का ज़ौक़ बढ़ जाता है घरों महलों और मसाजिद में हर तरफ़ ईमानी रंग-ओ-नूर की बरसात नज़र आती है।
नवाफ़िल अज़कार की रग़बत बढ़ जाती है । तिलावत क़ुरान-ए-पाक का शग़फ़ कई गुनाह बढ़ जाता है पूरी मुस्लिम सोसाइटी पर रुहानी नज़म-ओ-ज़बत का ईमान अफ़रोज़ रंग चढ़ जाता है।
नेकियों की बिहार का मौसम यानी रमज़ान उल-मुबारक की आमद हो लेकिन ना मस्जिदों की रौनक बढ़े ना ही अंदाज़-ए-अत्वार में मुसबत तबदीली आए ना अंदाज़ कार बदले ना दिल की आरज़ू बदले और ना ही ईमानी हरारत बेदार हो ना जज़बा महर-ओ-मुहब्बत फले फूले और ना ही बातिन से चशमा तस्लीम फूटे और ना ही ज़ाहिर-ओ-बातिन का तज़ाद दूर हो और ना ही मुसबत इन्क़िलाब आए तो तमाम महीनों और रमज़ान में क्या फ़र्क़ महसूस होगा ।
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रमजान का महीना
जब कि रमज़ान तमाम महीनों का सरदार ख़ुदा का मेहमान महीना है । इस माह-ए-मुबारक को शहनशाह-ए-दो-आलम ने सब्र और मुवासात का महीना क़रार दिया है आक़ाﷺ का फ़रमान है सब्र यानी ज़बत नफ़स और मुवासात यानी हमदर्दी-ओ-ग़मख़्वारी।
रमज़ान उल-मुबारक को सब्र का महीना इस लिए भी कि इस माह में बहुत से बशरी और नफ़सी कमज़ोरी जज़बात-ओ-एहसासात पर क़ाबू रखना पड़ता है अगर ग़ुस्सा आए तो कंट्रोल करना है गाली ग्लोच से परहेज़ करना है क्योंकि कंट्रोल ना करने की सूरत में रोज़ा मकरूह हो जाता है।
और अगर कोई दूसरा उस के सब्र को आज़माना चाहे उसे मुश्तइल करे तो फ़ौरी तौर पर आमादा जंग नहीं हो जाना चाहे कि ये आदाब रमज़ान की मुनाफ़ी है।
रोज़ादार को हर क़दम उठाते हुए हर बात करते हुए हर मुआमला करते हुए बहुत मुहतात रहना चाहिए ।
दुकान दार अफ़्सर मातहत मज़दूर मालिक को कोई भी बात करते हुए बहुत मुहतात रहना चाहीए कि मैं रोज़े से हूँ क्योंकि रोज़ादार के अंदर ख़ुदा के हाज़िर नाजिर होने का एतिक़ाद और यक़ीन बढ़ा देता है।
क्योंकि रोज़ा सिर्फ अल्लाह ﷲ के लिए रखा जाता और ﷲ इस अमल पर गवाह हो जाता है और जब रोज़ादार सब्र और ज़ब्त-ए-नफ़स के मुश्किल मराहिल से गुज़रता है।
आग बरसाती गर्मी में सख़्त प्यास के सामने ठंडे शीरीं मशरूबात पड़े हों मगर रोज़ादार कभी बेक़ाबू नहीं होता और अपनी प्यास पर कंट्रोल रखता है भूक की इंतिहा हो और होश उड़ा देने वाले और भूक को और तेज़ करने वाले खाने मौजूद हो लेकिन रोज़ादार ऐसे कई इम्तहानों में सुर्ख़रु होता है।
गर्म और ख़ुशबूदार खानों की तरफ़ देखता भी नहीं है।
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गरीबो का ख्याल
रमज़ान उल-मुबारक को मुवासात यानी हमदर्दी का महीना भी कहा जाता है वो इस तरह कि रोज़े की हालत में इन्सान भूक प्यास की जिस शिद्दत और कैफ़ीयत से गुज़रता है इस से इस के अंदर दूसरों की भूक प्यास का एहसास होता है।
मुआशरे के इन महरूम और ग़रीब तबक़ों का एहसास होता है कि मैं तो अल्लाह ﷲ के लिए आज कुछ नहीं खा रहा लेकिन वतन-ए-अज़ीज़ में लाखों लोग रोज़ाना इस भूक और प्यास से गुज़रते हैं लिहाज़ा रोज़ादार के दिल में इन महरूम और ग़रीब लोगों की भूक प्यास को मिटाने का जज़बा पैदा होता है।
जो सारा साल ग़ुर्बत के बाइस भूक प्यास की तकलीफ़ से गुज़रते हैं लिहाज़ा रोज़ादार उनकी मदद और भूक प्यास मिटाने के लिए अपने माल-ओ-दौलत को लुटाने पर तैयार हो जाता है।
यक़ीनन माह रमज़ान एक तर्बीयती कोर्स है जिसकी तर्बीयत लेकर दूसरों की भूक प्यास मिटाने की कोशिश करनी है और नफ़स की कमज़ोरीयों पर क़ाबू पाकर एक सालिह इन्सान बन कर सालिह मुआशरे का हिस्सा बनना है